महंगाई, मुफ्तखोरी और 200 मिलीलीटर कड़वा तेल

 "अब दाल में तड़का कैसे लगाऊंगी? सब कुछ तो ले आए तो फिर तेल लाना कैसे भूल गए?" मधु ने मोनू के झोले से सामान निकालते हुए थोड़ा गुस्से में कहा।

"भूला नहीं, बस ला नहीं पाया। कल ले आऊंगा", चूल्हे पर रखे बर्तन से गरम पानी का लोटा भरते हुए मोनू ने कहा।

"क्या मतलब भूले नहीं? मैंने खुद हिसाब लगाया था कि आज की दिहाड़ी से जरूरत का हर सामान आ जाना था। 200 ग्राम के तेल की शीशी भी। फिर तुम्हीं कहते हो कि खाने के नाम पर लुगड़ा बना दिया है।"

मोनू ने कोई जवाब नहीं दिया। बाहर गया, हाथ-मुंह धोए और अंदर आकर चूल्हे के बगल में रखे बिन्ने पर बैठकर एकटक आग की ओर देखने लगा। मधु भी चुपचाप आटा गूंथने लग गई।

"हुआ ये कि दुकान पर सबकुछ खरीद ही लिया था। बस तेल के लिए बोलने ही वाला था कि डॉक्टर साहब वहां अपना राशन लेने आ पहुंचे। दुकान पर किसी ने महंगाई का जिक्र क्या किया, डॉक्टर साहब उखड़ गए" , चूल्हे में और लकड़ियां लगाते हुए मोनू बोला।

"कहने लगे कि आज के दौर में कोई गरीब नहीं है। वरना एक दौर था जब लोग रोज का राशन रोज खरीदकर ले जाते थे। पहले राशन की दुकानों में तेल मापने के छोटे-छोटे बर्तन होते थे। लोग घर से शीशी लेकर आते थे और पीपे से 100 मिलीलीटर तेल खरीदकर ले जाते थे।"

"अब न तो कोई खुल्ला तेल खरीदते दिखता है और न ही दुकानदारों के पास अब वो छोटे-छोटे लीटर दिखते हैं। अब जमाना बदल गया है।"



"और वैसे भी हिमाचल में कोई गरीब नहीं है। ये सारी मुफ्तखोरी वाली स्कीमें दूसरी स्टेट्स के लिए हैं। हमारे यहां किसी को खाने के लाले नहीं पड़े। उल्टा यहां पर लोग मुफ्त में मिल रहे राशन को बेच-बेचकर खूब नोट कमा रहे हैं।"

मधु चुपचाप आटा गूंथती रही। इससे आगे न मोनू ने कुछ कहा और न मधु ने कुछ पूछा।

मोनू कैसे बताए कि डॉक्टर साहब की बातें सुनकर वह दबाव में आ गया था। उसे इस बात की शर्म महसूस होने लगी थी कि अब सबके बीच सिर्फ 200 मिलीलीटर तेल की शीशी कैसे मांगूं? डॉक्टर साहब खिल्ली उड़ाएंगे। दुकान में खड़े लोग क्या सोचेंगे?

भले मोनू ने बताया नहीं मगर मधु समझ गई थी कि अक्सर समाज के प्रभावशाली और बनावटी वर्ग को चपेट में लेने वाली 'लोकलाज' ने मोनू को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया था। ये चंद शब्द लोकलाज की दीवार को लांघ नहीं पाए थे- "200 ग्राम वाली तेल की एक बोतल देना।"

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