पहले तलवार था, अब धार होता जा रहा हूं
झूठ की कालिख है पोती जिनके ऊपर
उनके दामन पे लगे दाग़ धोता जा रहा हूं
है मालूम कि शायद ही मिलें ख़रीदार मगर
रोज़ सच को बाज़ार तक ढोता जा रहा हूं
लगा है स्वाद सूखी-कड़क रोटी का जबसे
मज़ा हर ऐश में आराम में खोता जा रहा हूं
सब पाने की टूटी जब चाह तो मैंने ये पाया
सब गंवाकर भी शहरयार होता जा रहा हूं
है हर सफ़र से मिल रहा तज़ुर्बा अलग सा
हर रोज़ इक नई याद संजोता जा रहा हूं
मिल रहा है प्यार इतना कि कैसे क्या बताऊं
कह न पाने की है ये कसक कि रोता जा रहा हूं
बदहवास हैं नफ़रत की खेती करने वाले
हर कहानी से मोहब्बत जो बोता जा रहा हूं
Comments